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'शेखर : एक जीवनी' एक उपन्यास भर नहीं पूरा जीवन है।

अज्ञेय ने तमाम ऐसे संवादों को अधूरा छोड़ दिया है, जहाँ भावना बहुत तीव्र हो चली है। लेखक का संवाद में पैदा किया गया यह निर्वात उसे और भी खूबसूरत बना देता है। 'शेखर : एक जीवनी' - दूसरा भाग आप इसे पढ़ते-पढ़ते स्वयं शेखर हो जाते हैं। इसमें पिरोयी गयी अनुभूतियाँ इतनी तीव्र हैं कि सबकुछ आपके सामने घटित होने लगता है। शेखर एक पल के लिए भी रचा गया पात्र नहीं लगता है। लगता ही नहीं कि वह कभी किसी लेखक के हाथ की कठपुतली रहा होगा। उसे मनमाने ढंग से मोड़ और ढाल दिया गया होगा। शेखर तभी तक पन्नों में सिमटा रहता है, जब तक उसे पढ़ा नहीं गया। पढ़ते ही वह जीवंत हो जाता है। लौट आता है और और शशि की सप्तपर्णी छाया में बड़ी सहजता से आदर्श के नये-नये कीर्तिमान रचता चला जाता है। एक बार पढ़ लेने के बाद उसे पुनः पन्नों में समेटना और सहेजना असम्भव बन पड़ता है। अज्ञेय के संकेत शेखर को इस समाज के विरोध में सहजता से खड़े होने के लिए बल देने के झूठे प्रयास से लगते हैं। जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं दिखती है। शेखर कभी बनता हुआ पात्र नहीं जान पड़ता है। वह एक ऐसा पात्र है, जो पहले से ही बना हुआ है। वह उलट परिस्थिति

गाँव ख़ूबसूरत नहीं होते हैं!

मुझे नहीं मालूम आपलोगों की नज़र में गाँव की परिभाषा क्या है? खेत में बैठी दो बच्चियाँ जिस गाँव में मैं रहता हूँ। जो गाँव मैंने देखे हैं। वे बहुत सुंदर नहीं होते हैं। वे अभावों का एक विशाल संसार होते हैं। इन गाँवों में पानी की व्यवस्था, बिजली, सड़क, नाली, स्कूल, अस्पताल, रोजगार, सवारीगाड़ी, इंटरनेट, लाइब्रेरी यह सब या तो न के बराबर है, या है ही नहीं। इन गांवों के समाज जातिवाद, धर्मवाद, लिंगभेद आदि से ग्रस्त, बीमार, घटिया और भद्दे होते हैं। इन गाँवों में आज भी लोग डोम समाज के लोगों को छू लेने पर शुद्धि के लिये स्नान करते हैं। वहीं भैंस, बकरी, गाय, कुत्ता, बिल्ली जानवर हैं। इनको छूने से कोई अशुद्धि नहीं होती है। मैं इतनी भद्दी तुलना के लिये माफी चाहता हूँ। लेकिन, यह सच है। मैं रोज इससे उबरने की कोशिश करता हूँ। बावजूद इसके, मेरे भीतर इन गांवों के बड़े हिस्से जिंदा हैं। जाड़ा, गर्मी, बरसात, धूप, धूल, दिन, रात खेत में खपे रहने के बाद भी किसान हमारा हीरो नहीं होता है। वह पहले अभावों में घिसटता है। फिर मार दिया जाता है। उसे दुश्मन गोली से नहीं मारते हैं। उसे हमलोग मार देते हैं। बच जाने

मॉब लिंचिंग का शिकार बना आदमी कैसा महसूस करता होगा?

मैंने मॉब लिंचिंग को बहुत क़रीब से महसूस किया। यह अहसास बहुत डरावना होता है। यह इतना भयावह होता है कि इसमें जीवन दिखना बंद हो जाता है। सामने केवल मौत दिखती है। दिमाग बस यह सोचता है कि मैं कैसे ज्यादा देर तक जिंदा बना रह सकूँ। जिससे यह भीड़ या तो थककर रुक जाये, या इसे यह अहसास हो जाये कि वो किसी की जान ले रहे हैं। मधुमक्खियों की प्रतीकात्मक तस्वीर हर रोज़ की तरह कल दोपहर भी मैं पढ़ने के लिए गाँव से बाहर एक पीपल के पेड़ तले बैठा। आसपास कोई नहीं था। निपट शांति थी। बीच-खूच एक दो चिड़ियों की आवाज भर सुनायी दे रही थी। मैं आर्ट ऑफ एंकरिंग की क्लास पूरी करके सत्याग्रह पर अव्यक्त का लिखा एक लेख पढ़ रहा था। यह रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में गांधी की उस उपस्थिति के बारे में था जो समय बीतने के साथ-साथ उनकी प्रासंगिकता को और मजबूत कर देती है। मैं इसे आधा ही पढ़ पाया था। तभी मेरे सिर पर एक मधुमक्खी आ बैठी। अगर आप मधुमक्खी की प्रजातियों के बारे में जानते हों तो यह सबसे बड़ी मधुमक्खी थी। जिसे कई जगह गैंड़ा और कई जगह कैंड़ा आदि नामों से जाना जाता है। अगर ये मधुमक्खियां 20 से अधिक के झुंड में किसी प

राशन कार्ड धारक होने पर भी राशन से वंचित राजरानी की मुश्किलें लॉकडाउन ने कैसे दोगुनी कर दी हैं?

ग्राउंड रिपोर्ट! मंगलवार शाम केंद्र सरकार ने फैसला लिया है कि एफसीआई के पास उपलब्ध अतिरिक्त चावल से एथनॉल तैयार होगा। इस एथनॉल का इस्तेमाल हैंड सैनिटाइजर बनाने एवं पेट्रोल में मिलाने में किया जाएगा। जिस समय देशभर से खबरें सामने आ रही हैं कि लोग भूख से परेशान हैं। ऐसे में केंद्र सरकार का यह फैसला उसकी प्राथमिकता पर सवाल खड़े करता है। परेशान बैठी राजरानी(68) तस्वीर: गौरव तिवारी 'खेत में जो शीला(खेतों में गिरा अनाज) गिर जाता है। उसी को बीनकर पेट भरते हैं। इस बार वो भी नहीं गिरा। बताया गया है कि दूसरे के घर भी नहीं जाना है। मांगेंगे नहीं तो क्या खाएंगे?' ऐसा कहते हुए राजरानी(68) अपनी साड़ी के पल्लू से आँसू पोछ लेती हैं।' राजरानी उत्तर प्रदेश में फतेहपुर जिले के बुढ़वां गाँव की निवासी हैं। उनके पास खेत नहीं हैं। दूसरे के खेतों में गिरे अनाज को बीनकर ही अपना पेट भरती हैं। जरूरत पड़ने पर आसपास के घरों से मांगकर खाना होता है। इस बार खेतों में अनाज नहीं झरा है। ऐसे में लॉकडाउन ने उनके लिए मुश्किल दूनी कर दी है। वह भूखे होने पर किसी से खाना मांगने पर भी कतरा रही हैं।

बबूल

तस्वीर: गौरव तिवारी जब माटी माँ होने से मना कर देती है वह रूखी और बलुई हो जाती है वह शासक बन जाती है उसे अपने ऊपर किसी का जिंदा होना सहन नहीं होता वह किसी को भी उगने नहीं देती पानी होती है जिंदा होने की निशानी इसलिए वह ख़त्म कर देती है पानी वह नहीं उगने देती है घास नहीं उगने देती है गेहूँ डर के मारे नहीं उगता है नीम बरगद और पीपल भी उगने से मना कर देते हैं जब सब मर जाते हैं वहाँ उग आता है बबूल जब ख़त्म हो रही होगी दुनिया तब उग रहा होगा बबूल - गौरव तिवारी

रबी में 'अंध' तो खरीफ में 'कुप्प'

रबी फसल की बेहद कम मात्रा और सस्ते दाम पर हुई बिक्री ने अंधेरा पैदा किया है। तो वहीं खरीफ की फसल को लेकर स्थिति साफ न होना उसमें कुप्प भी जोड़ रहा है। दोनों ने मिलकर किसानों के लिए 'अंधाकुप्प' जैसी स्थिति बना दी है। गेहूँ की मड़ाई करते मजदूर किसानों ने खरीफ़ की फसल के लिये खेतों की जुताई शुरू कर दी है। जबकि अभी रबी की करीब 30 फीसदी फसल खेत में ही सड़ने को छोड़ दी गयी है। वेजिटेबल्स ग्रोअर्स एशोसिएशन ऑफ इंडिया(वीजीआई) का दावा है कि किसानों ने करीब 30% सब्जी खेतों में ही सड़ने को छोड़ दी है। इस बीच फलों की बिक्री में भी भारी गिरावट दर्ज की गयी है। जिससे तमाम बागान मालिकों की भी चिंता की लकीरें गाढ़ी हो गयी हैं। इसके प्रमुख कारण लॉकडाउन के चलते होटल, रेस्टोरेंट और ढाबों का बन्द होना और शहरों के लिए सब्जी और फलों का सप्लाई सिस्टम का ठप्प हो जाना। सरकार ने इसे सुलझाने के लिए अब तक कोई रास्ता नहीं निकाला है। इससे किसानों को भारी घाटा हुआ है। देश में सब्जियों और फलों की उपलब्धता में करीब 65 फीसदी हिस्सा रबी फसल का ही होता है। बाकी योगदान खरीफ फसल का है। ऐसे में रबी की पूरी फस

रबी में 'अंध' तो खरीफ में 'कुप्प'

किसानों ने खरीफ़ की फसल के लिये खेतों की जुताई शुरू कर दी है। जबकि अभी रबी की करीब आधी फसल खेत में ही है। गहूँ वेजिटेबल्स ग्रोअर्स एशोसिएशन ऑफ इंडिया(वीजीआई) का दावा है कि किसानों ने करीब 30% सब्जी खेतों में ही सड़ने को छोड़ दी है। इस बीच फलों की बिक्री में भी भारी गिरावट दर्ज की गयी है। जिससे तमाम बागान मालिकों की भी चिंता की लकीरें गाढ़ी हो गयी हैं। इसके प्रमुख कारण लॉकडाउन के चलते होटल, रेस्टोरेंट और ढाबों का बन्द होना और शहरों के लिए सब्जी और फलों का सप्लाई सिस्टम का ठप्प हो जाना। सरकार ने इसे सुलझाने के लिए अब तक कोई रास्ता नहीं निकाला है। इससे किसानों को भारी घाटा हुआ है। देश में सब्जियों और फलों की उपलब्धता में करीब 65 फीसदी हिस्सा रबी फसल का ही होता है। बाकी योगदान खरीफ फसल का है। ऐसे में रबी की पूरी फसल खेतों से बाजार न पहुँच पाना आने वाले समय में किसान और खरीददार दोनों के लिए मुश्किल खड़ी करता दिख रहा है। किसान बड़े घाटे के साथ अगली फसल में प्रवेश कर रहे हैं। ज्यादातर किसानों को खरीफ की फसल की जुताई, बुआई, खाद आदि के लिए कर्ज लेना पड़ा है। जबकि अगली फसल को लेकर भी स्थिति