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'शेखर : एक जीवनी' एक उपन्यास भर नहीं पूरा जीवन है।

अज्ञेय ने तमाम ऐसे संवादों को अधूरा छोड़ दिया है, जहाँ भावना बहुत तीव्र हो चली है। लेखक का संवाद में पैदा किया गया यह निर्वात उसे और भी खूबसूरत बना देता है। 'शेखर : एक जीवनी' - दूसरा भाग आप इसे पढ़ते-पढ़ते स्वयं शेखर हो जाते हैं। इसमें पिरोयी गयी अनुभूतियाँ इतनी तीव्र हैं कि सबकुछ आपके सामने घटित होने लगता है। शेखर एक पल के लिए भी रचा गया पात्र नहीं लगता है। लगता ही नहीं कि वह कभी किसी लेखक के हाथ की कठपुतली रहा होगा। उसे मनमाने ढंग से मोड़ और ढाल दिया गया होगा। शेखर तभी तक पन्नों में सिमटा रहता है, जब तक उसे पढ़ा नहीं गया। पढ़ते ही वह जीवंत हो जाता है। लौट आता है और और शशि की सप्तपर्णी छाया में बड़ी सहजता से आदर्श के नये-नये कीर्तिमान रचता चला जाता है। एक बार पढ़ लेने के बाद उसे पुनः पन्नों में समेटना और सहेजना असम्भव बन पड़ता है। अज्ञेय के संकेत शेखर को इस समाज के विरोध में सहजता से खड़े होने के लिए बल देने के झूठे प्रयास से लगते हैं। जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं दिखती है। शेखर कभी बनता हुआ पात्र नहीं जान पड़ता है। वह एक ऐसा पात्र है, जो पहले से ही बना हुआ है। वह उलट परिस्थिति...