सभी तस्वीरें: गौरव तिवारी |
इनको सोशल डिस्टेंसिंग जैसी किसी चीज से कोई मतलब नहीं है। बिना चप्पल-जूता झाड़-झंकाल में घुसे हैं। आप ही अंदाजा लगाइए कितनी साफ-सफाई रखते होंगे? सेनेटाइजिंग दूर का विषय है, साबुन से कितनी बार हाथ धुलते होंगे?
ऐसा इसलिये है, क्योंकि इनके माँ-बाप को भी इसकी समझ नहीं है। वे अपनो बच्चों को भी यह समझ नहीं दे सकते हैं। उन्हें नहीं मालूम है कि कोरोना वायरस से किस तरह के खतरे हैं। यह बीमारी भी है या यह अब महामारी घोषित कर दी गयी है।
राजनीतिक दल इन तक अपने चुनाव चिह्न पहुँचा देते हैं। बाकी, सबकुछ पहुँचाने में सक्षम नहीं बचते हैं। वे मदद पहुंचाने के नाम पर सत्ता में न होने का रोना रोने लगते हैं। वे निरीह और लाचार बन जाते हैं। वे मौजूदा सरकार की तरफ मुँह उठाकर देखते हैं। मौका मिलने पर कोसते हैं। बस खुद कुछ नहीं करते हैं।
सरकार ने अभी तक गांवों में अस्पतालों के बारे में नहीं सोचा है। वह गाँवों में अस्पतालों के नाम पर कमरा खड़ा कर देती है। कुछ रंग पुतवा दिये जाते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लिखवा दिया जाता है। उसके बाद ताला ही पड़ा रहता है।
सरकारें ऐसी समस्याएँ विकराल होने पर जागती हैं। खूब प्रेस कॉन्फ्रेंस करती हैं। तमाम वादे करती हैं। बहुत अपील करती हैं। लोग नहीं सुनते हैं। उन तक पहुँच नहीं पाती हैं। पहुँच भी जाती हैं तो उनकी बात अनसुनी कर दी जाती है। क्योंकि, लोगों को सरकार पर विश्वास नहीं है। विश्वास होता तो सरकार की इतनी अपील के बाद भी मजदूर डंडे खाकर धूप में 1000 किलोमीटर पैदल न भागते। मकान-मालिक पढ़े लिखे होते हैं। इसलिये वे सरकार से नहीं डरते हैं। वे जानते हैं जब-तक सरकारें एक्शन लेंगी, तब तक मजदूरों को भगा देंगे। वे ऐसा ही करते हैं।
अब बात तस्वीर पर दिख रहे बच्चों की। मेरे घर के पीछे अरण्डी(अंडी) के बहुत पेड़ हैं। अंडी बीनने के लिए इन दिनों बच्चों का हुजूम लगता है। अब भी लग रहा है। मैं इनको समझा ता हूँ। ये नहीं सुनते हैं। मैंने अब डाँटना शुरू कर दिया है। ये फिर भी नहीं सुन रहे हैं। मैं सरकार हो गया हूँ।
मैं जानता हूँ वे अंडी नहीं मजबूरी बीनते हैं। वे इसे बेचकर कुछ पैसे कमाना चाहते हैं। वे स्कूल शुरू होने पर उससे नया बस्ता लेंगे...
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