सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

राशन कार्ड धारक होने पर भी राशन से वंचित राजरानी की मुश्किलें लॉकडाउन ने कैसे दोगुनी कर दी हैं?

ग्राउंड रिपोर्ट!

मंगलवार शाम केंद्र सरकार ने फैसला लिया है कि एफसीआई के पास उपलब्ध अतिरिक्त चावल से एथनॉल तैयार होगा। इस एथनॉल का इस्तेमाल हैंड सैनिटाइजर बनाने एवं पेट्रोल में मिलाने में किया जाएगा। जिस समय देशभर से खबरें सामने आ रही हैं कि लोग भूख से परेशान हैं। ऐसे में केंद्र सरकार का यह फैसला उसकी प्राथमिकता पर सवाल खड़े करता है।

परेशान बैठी राजरानी(68)
तस्वीर: गौरव तिवारी





'खेत में जो शीला(खेतों में गिरा अनाज) गिर जाता है। उसी को बीनकर पेट भरते हैं। इस बार वो भी नहीं गिरा। बताया गया है कि दूसरे के घर भी नहीं जाना है। मांगेंगे नहीं तो क्या खाएंगे?'
ऐसा कहते हुए राजरानी(68) अपनी साड़ी के पल्लू से आँसू पोछ लेती हैं।'


राजरानी उत्तर प्रदेश में फतेहपुर जिले के बुढ़वां गाँव की निवासी हैं। उनके पास खेत नहीं हैं। दूसरे के खेतों में गिरे अनाज को बीनकर ही अपना पेट भरती हैं। जरूरत पड़ने पर आसपास के घरों से मांगकर खाना होता है। इस बार खेतों में अनाज नहीं झरा है। ऐसे में लॉकडाउन ने उनके लिए मुश्किल दूनी कर दी है। वह भूखे होने पर किसी से खाना मांगने पर भी कतरा रही हैं।

उनसे पूछने पर, आपको सरकारी राशन तो मिला होगा?
'कुछ नहीं मिला बेटा। राशन कार्ड बना तो है। लेकिन, किसी काम का नहीं है। हर महीने राशन की मुनादी सुनकर झोला लेकर जाते हैं। हर बार खाली हाथ ही लौटना होता है'

राजरानी की उंगलियों के निशान बायोमेट्रिक मशीन में उनके आधार कार्ड में दर्ज निशानों से मैच नहीं होते हैं। कुछ साल पहले बीमारी के चलते उनके पति की मौत हो गयी थी। जिसमें रो-रोकर उन्होंने आँखों की रोशनी गवां दीं। ऑपरेशन से उनकी नजर तो लौट आयी। लेकिन, अब उनकी आंखों के निशान भी आइरिश मशीन से मैच न होने के चलते सरकारी राशन से वंचित रहना पड़ रहा है।

सम्बन्धित राशन डीलर ने अनाधिकारिक रूप से बातचीत में नाम न बताने की शर्त पर बताया कि 'यह अकेला मामला नहीं है। जिसमें किसी का राशन कार्ड बना हुआ है। लेकिन, उन्हें अनाज नहीं मिल पा रहा है। ऐसे और भी लोग हैं जिनके उँगलियों के निशान और आईबॉल मैच नहीं होती हैं।
उन्होंने बताया कि इस मामले को एक कैम्प में अधिकारियों के सामने रखा था। लेकिन, कोई हल नहीं मिला। वे कहते हैं अगर यह तकनीकी पेंच न हो तो अन्य लोगों की तरह इन्हें अनाज देने में भी कोई परेशानी नहीं है।

उंगलियों के निशान और आईबॉल मैच न होने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि सम्भव है कि यह गलती जल्दबाजी में आधारकार्ड बनाने के समय हुई है। या काम करते करते उनकी उंगलियों के निशान आधार कार्ड में दर्ज निशानों से मिलने बन्द हो गये हैं। उन्होंने कहा कि यह सरकारी मामला है मैं अपनी तरफ से उन्हें अनाज नहीं दे सकता।'

पहले लॉकडाउन के अंतिम दिनों में सामाजिक कार्यकर्ता और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने इंडियन एक्सप्रेस पर एक लेख लिखा था। इसमें उन्होंने गरीबों तक खाना पहुँचने में आने वाली तमाम चुनौतियां बतायी थीं। अब वह सामने भी आने लगी हैं।

उन्होंने लिखा था- 'ऐसी संकट की घड़ी में इतने बड़े पैमाने पर नकदी पहुँचाना चुनौती भरा काम है, बहुत सारे ग्रामीण इलाकों में बैंक नहीं हैं, हैं भी तो सब जगह नहीं हैं। इसके अलावा बैंकों में पैसे के लेन-देन के लिए अँगूठा लगाना पड़ता है जो अभी सुरक्षित नहीं है। ग्रामीण बैंकों में भीड़ बढ़ने का ख़तरा भी है।

पैसे के ट्रांसफ़र में होने वाली मामूली गलतियाँ ग़रीबों के लिए बहुत भारी पड़ेंगी, जिनके खाते में पैसे नहीं आएँगे उन्हें बहुत भटकना पड़ सकता है, पैसे खर्च करके पता लगाने के लिए बैंक के चक्कर लगाने पड़ सकते हैं। किसी को कहा जाएगा कि काउंटर बंद है, किसी को कहा जाएगा बायोमेट्रिक वेरिफ़िकेशन नहीं हो पा रहा है वगैरह... मैं समस्या की कल्पना या उसका आविष्कार नहीं कर रहा हूँ। मैंने यह सब राँची के पास नगड़ी ब्लॉक में देखा है, जहाँ झारखंड सरकार ने जन वितरण प्रणाली की जगह डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर चलाने की कोशिश की थी।'

लगातार रिपोर्ट्स आ रही हैं कि देश में खाने का विशाल भंडार है। गोदामों में बफर स्टॉक(आपातकालीन भंडार) से करीब 126% अधिक चावल भरा हुआ है। एफ़सीआई के गोदामों में 7.7 करोड़ टन अनाज है। जबकि अभी रबी की फसल की खरीददारी नहीं हुयी है। रबी फसल भी पहुँच जाने से 2 करोड़ टन और अनाज गोदाम में और पहुँच जाएगा। ऐसे में सरकार इसके कुछ हिस्से का इस्तेमाल उन लोगों का पेट भरने के लिए हो सकता है जो कोरोना संकट की वजह से भूख से जूझ रहे हैं। कोरोना काल में पैदा हुए भूख के इस संकट से बाहर निकलने के लिए सरकार के अब तक कदम नाकाफी रहे हैं।


इस बारे में बात करने पर पत्रकार और लेखक हेमंत कुमार पांडेय कहते हैं- ' ये हालात लॉकडाउन के चलते अचानक नहीं पैदा हुए हैं। शहर में फँसे मजदूर तो लॉकडाउन का शिकार बने हैं। लेकिन, स्वास्थ्य और गाँव की समस्याएं पहले से ही मौजूद थीं। लॉकडाउन ने इन्हें उभारने का काम किया है। मामले सामने आने शुरू हो गये हैं। यदि सरकार अभी भी ध्यान नहीं देती है। अगर लॉकडाउन लम्बा खिंचा तो मई तक स्थिति और भी भयावह हो सकती है।'


देशभर में लाखों लोगों पर भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है। लॉकडाउन के चलते शहर में फँसे मजदूर बेरोजगार हो गए हैं। कुछ लोगों तक एक वक्त का खाना पहुँच रहा है तो कुछ इससे भी मरहूम हैं। भारत सरकार को इस बाबत बड़े और प्रभावी फैसले लेने की जरूरत है। अधिकतर गांवों में जन वितरण प्रणाली और मिड डे मील की व्यवस्था पहले से ही मौजूद है। जरूरत है केंद्र सरकार को अपने गोदाम खोलने की।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

'शेखर : एक जीवनी' एक उपन्यास भर नहीं पूरा जीवन है।

अज्ञेय ने तमाम ऐसे संवादों को अधूरा छोड़ दिया है, जहाँ भावना बहुत तीव्र हो चली है। लेखक का संवाद में पैदा किया गया यह निर्वात उसे और भी खूबसूरत बना देता है। 'शेखर : एक जीवनी' - दूसरा भाग आप इसे पढ़ते-पढ़ते स्वयं शेखर हो जाते हैं। इसमें पिरोयी गयी अनुभूतियाँ इतनी तीव्र हैं कि सबकुछ आपके सामने घटित होने लगता है। शेखर एक पल के लिए भी रचा गया पात्र नहीं लगता है। लगता ही नहीं कि वह कभी किसी लेखक के हाथ की कठपुतली रहा होगा। उसे मनमाने ढंग से मोड़ और ढाल दिया गया होगा। शेखर तभी तक पन्नों में सिमटा रहता है, जब तक उसे पढ़ा नहीं गया। पढ़ते ही वह जीवंत हो जाता है। लौट आता है और और शशि की सप्तपर्णी छाया में बड़ी सहजता से आदर्श के नये-नये कीर्तिमान रचता चला जाता है। एक बार पढ़ लेने के बाद उसे पुनः पन्नों में समेटना और सहेजना असम्भव बन पड़ता है। अज्ञेय के संकेत शेखर को इस समाज के विरोध में सहजता से खड़े होने के लिए बल देने के झूठे प्रयास से लगते हैं। जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं दिखती है। शेखर कभी बनता हुआ पात्र नहीं जान पड़ता है। वह एक ऐसा पात्र है, जो पहले से ही बना हुआ है। वह उलट परिस्थिति...

मॉब लिंचिंग का शिकार बना आदमी कैसा महसूस करता होगा?

मैंने मॉब लिंचिंग को बहुत क़रीब से महसूस किया। यह अहसास बहुत डरावना होता है। यह इतना भयावह होता है कि इसमें जीवन दिखना बंद हो जाता है। सामने केवल मौत दिखती है। दिमाग बस यह सोचता है कि मैं कैसे ज्यादा देर तक जिंदा बना रह सकूँ। जिससे यह भीड़ या तो थककर रुक जाये, या इसे यह अहसास हो जाये कि वो किसी की जान ले रहे हैं। मधुमक्खियों की प्रतीकात्मक तस्वीर हर रोज़ की तरह कल दोपहर भी मैं पढ़ने के लिए गाँव से बाहर एक पीपल के पेड़ तले बैठा। आसपास कोई नहीं था। निपट शांति थी। बीच-खूच एक दो चिड़ियों की आवाज भर सुनायी दे रही थी। मैं आर्ट ऑफ एंकरिंग की क्लास पूरी करके सत्याग्रह पर अव्यक्त का लिखा एक लेख पढ़ रहा था। यह रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में गांधी की उस उपस्थिति के बारे में था जो समय बीतने के साथ-साथ उनकी प्रासंगिकता को और मजबूत कर देती है। मैं इसे आधा ही पढ़ पाया था। तभी मेरे सिर पर एक मधुमक्खी आ बैठी। अगर आप मधुमक्खी की प्रजातियों के बारे में जानते हों तो यह सबसे बड़ी मधुमक्खी थी। जिसे कई जगह गैंड़ा और कई जगह कैंड़ा आदि नामों से जाना जाता है। अगर ये मधुमक्खियां 20 से अधिक के झुंड में किसी प...