विश्व्यापी महामारी कोविड-19 ने दुनिया भर में भयानक स्थिति पैदा कर दी थी। तब भारत सरकार जिम्मेदारी दिखाते हुए प्रवासी भारतीयों की न केवल हर सम्भव मदद की, बल्कि उन्हें सेना विमान भेजकर भारत भी लाया गया। भारत सरकार इस मामले में तारीफ़ की हक़दार है।
हम शिष्ट लोग हैं। हमें बचपन से सबका सम्मान करना सिखाया जाता है। हमें कुछ सिखाया जाता है और कुछ देखकर सीखते हैं। हमने बचपन से देखा होता है कि जितना अमीर रिश्तेदार होता है, उतना अधिक सम्मान का भोगी बनता है। अधिक दहेज लाने वाली बहू को अन्य बहुओं से अधिक सम्मान मिलता है। हम सबसे मिलकर देश बनता है। इसलिए हमारा देश भी शिष्ट है। हमारे देश में प्रवासी अतिसम्मानीय श्रेणी में आते हैं। प्रवासी हमारे देश के रिश्तेदार होते हैं। ऊपर से वो हमारी अर्थव्यवस्था में रुपया नहीं सीधे डॉलर जोड़ते हैं।
वे महामारियां भी जोड़ते हैं। लेकिन, यह देश की अर्थव्यवस्था से पहले उन लोगों के जीवन से जुड़ जाती है। जिन्हें पता भी नहीं, डॉलर होता क्या है?
ज्यादातर महामारियां युद्ध, व्यापार, प्रवास के जरिए फैलती हैं। महामारियां यात्रा करती हैं। यात्रा के माध्यम से पहुंचती और फैलती हैं। लेकिन कई बार हम इसका दोष स्थानीय लोगों पर डालने लगते हैं। जैसे 1817 का ‘इंडियन प्लेग’ सैनिकों और औपनिवेशिक गतिविधियों से जुडे़ आयरिश लोगों के माध्यम से फैला था। लेकिन, उसके लिए स्थानीय भारतीय जनता को दोषी बताया जाने लगा था। यूरोप और अमेरिका में तो कई बार महामारियों के प्रसार के लिए स्थानीय यहूदी समुदायों को जिम्मेदार बताकर दंडित भी किया जा चुका है।
महामारी कैसे भी आये, कहीं से भी आये। उसका विलेन ग़रीब और मजदूर तबका ही बनता है। साल 1817 के आस-पास एक महामारी भयानक रूप से फैली थी। जिसे नाम दिया गया था, 'भारतीय प्लेग'। इतिहास बताता है कि यह ब्रिटिश सेना की टुकड़ियों के माध्यम से बंगाल के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहुंची। हर महामारी चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़कर विकराल रूप लेती चली जाती है। ठीक वैसे ही, स्थानीय भारतीय जनता इसके प्रथम चरण में मात्र ‘पैसिव रेसिपिएंट’ थी। धीरे-धीरे वह इसकी संवाहक में तब्दील होती गयी। इसके बाद इसने खूब तबाही मचायी।
भारत में भी जब लॉकडाउन की घोषणा हुयी। दिल्ली और देश के कई बड़े शहरों से बड़ी संख्या में मजदूर अपने गांवों की ओर पैदल ही निकल पड़े थे। किसी को भी ऐसी स्थिति का अंदाजा नहीं था। लेकिन, भारत सरकार ने भी लॉकडाउन के साथ इनके लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी। फिर, लॉकडाउन की स्थिति में झुंड बनाकर चल रहे इन मजदूरों की तस्वीरों पर सवाल उठने शुरू हो गये। कइयों ने बुरा-भला कहा। मीडिया ने भी इन मजदूरों की मजबूरी समझने के बजाय इन्हें आड़े हाथों लिया और ये विलेन बन गये।
महामारियों के प्रसार की वाहक गरीब व आम जनता नहीं होती। इसे लाने वाले अक्सर अमीर तबके के लोग होते हैं। गरीब और श्रमिक तबके के लोग विदेशी प्रवास कम करते हैं।
ये महामारियों को ग्रहण कर उन्हें फैलाने का जरिया बनते हैं। ये समूह ज्यादातर स्लम, गरीब बस्तियों, सड़कों पर रहते हैं। शिक्षा और धन की कमी से जूझते हुए ये दब्बू और सवाल न करने वाले बन जाते हैं। इसलिये इनपर कुछ भी थोप देना आसान होता है।
तस्वीर: सोशल मीडिया |
हम शिष्ट लोग हैं। हमें बचपन से सबका सम्मान करना सिखाया जाता है। हमें कुछ सिखाया जाता है और कुछ देखकर सीखते हैं। हमने बचपन से देखा होता है कि जितना अमीर रिश्तेदार होता है, उतना अधिक सम्मान का भोगी बनता है। अधिक दहेज लाने वाली बहू को अन्य बहुओं से अधिक सम्मान मिलता है। हम सबसे मिलकर देश बनता है। इसलिए हमारा देश भी शिष्ट है। हमारे देश में प्रवासी अतिसम्मानीय श्रेणी में आते हैं। प्रवासी हमारे देश के रिश्तेदार होते हैं। ऊपर से वो हमारी अर्थव्यवस्था में रुपया नहीं सीधे डॉलर जोड़ते हैं।
वे महामारियां भी जोड़ते हैं। लेकिन, यह देश की अर्थव्यवस्था से पहले उन लोगों के जीवन से जुड़ जाती है। जिन्हें पता भी नहीं, डॉलर होता क्या है?
ज्यादातर महामारियां युद्ध, व्यापार, प्रवास के जरिए फैलती हैं। महामारियां यात्रा करती हैं। यात्रा के माध्यम से पहुंचती और फैलती हैं। लेकिन कई बार हम इसका दोष स्थानीय लोगों पर डालने लगते हैं। जैसे 1817 का ‘इंडियन प्लेग’ सैनिकों और औपनिवेशिक गतिविधियों से जुडे़ आयरिश लोगों के माध्यम से फैला था। लेकिन, उसके लिए स्थानीय भारतीय जनता को दोषी बताया जाने लगा था। यूरोप और अमेरिका में तो कई बार महामारियों के प्रसार के लिए स्थानीय यहूदी समुदायों को जिम्मेदार बताकर दंडित भी किया जा चुका है।
महामारी कैसे भी आये, कहीं से भी आये। उसका विलेन ग़रीब और मजदूर तबका ही बनता है। साल 1817 के आस-पास एक महामारी भयानक रूप से फैली थी। जिसे नाम दिया गया था, 'भारतीय प्लेग'। इतिहास बताता है कि यह ब्रिटिश सेना की टुकड़ियों के माध्यम से बंगाल के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहुंची। हर महामारी चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़कर विकराल रूप लेती चली जाती है। ठीक वैसे ही, स्थानीय भारतीय जनता इसके प्रथम चरण में मात्र ‘पैसिव रेसिपिएंट’ थी। धीरे-धीरे वह इसकी संवाहक में तब्दील होती गयी। इसके बाद इसने खूब तबाही मचायी।
भारत में भी जब लॉकडाउन की घोषणा हुयी। दिल्ली और देश के कई बड़े शहरों से बड़ी संख्या में मजदूर अपने गांवों की ओर पैदल ही निकल पड़े थे। किसी को भी ऐसी स्थिति का अंदाजा नहीं था। लेकिन, भारत सरकार ने भी लॉकडाउन के साथ इनके लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी। फिर, लॉकडाउन की स्थिति में झुंड बनाकर चल रहे इन मजदूरों की तस्वीरों पर सवाल उठने शुरू हो गये। कइयों ने बुरा-भला कहा। मीडिया ने भी इन मजदूरों की मजबूरी समझने के बजाय इन्हें आड़े हाथों लिया और ये विलेन बन गये।
महामारियों के प्रसार की वाहक गरीब व आम जनता नहीं होती। इसे लाने वाले अक्सर अमीर तबके के लोग होते हैं। गरीब और श्रमिक तबके के लोग विदेशी प्रवास कम करते हैं।
ये महामारियों को ग्रहण कर उन्हें फैलाने का जरिया बनते हैं। ये समूह ज्यादातर स्लम, गरीब बस्तियों, सड़कों पर रहते हैं। शिक्षा और धन की कमी से जूझते हुए ये दब्बू और सवाल न करने वाले बन जाते हैं। इसलिये इनपर कुछ भी थोप देना आसान होता है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें