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'शेखर : एक जीवनी' एक उपन्यास भर नहीं पूरा जीवन है।

अज्ञेय ने तमाम ऐसे संवादों को अधूरा छोड़ दिया है, जहाँ भावना बहुत तीव्र हो चली है। लेखक का संवाद में पैदा किया गया यह निर्वात उसे और भी खूबसूरत बना देता है। 'शेखर : एक जीवनी' - दूसरा भाग आप इसे पढ़ते-पढ़ते स्वयं शेखर हो जाते हैं। इसमें पिरोयी गयी अनुभूतियाँ इतनी तीव्र हैं कि सबकुछ आपके सामने घटित होने लगता है। शेखर एक पल के लिए भी रचा गया पात्र नहीं लगता है। लगता ही नहीं कि वह कभी किसी लेखक के हाथ की कठपुतली रहा होगा। उसे मनमाने ढंग से मोड़ और ढाल दिया गया होगा। शेखर तभी तक पन्नों में सिमटा रहता है, जब तक उसे पढ़ा नहीं गया। पढ़ते ही वह जीवंत हो जाता है। लौट आता है और और शशि की सप्तपर्णी छाया में बड़ी सहजता से आदर्श के नये-नये कीर्तिमान रचता चला जाता है। एक बार पढ़ लेने के बाद उसे पुनः पन्नों में समेटना और सहेजना असम्भव बन पड़ता है। अज्ञेय के संकेत शेखर को इस समाज के विरोध में सहजता से खड़े होने के लिए बल देने के झूठे प्रयास से लगते हैं। जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं दिखती है। शेखर कभी बनता हुआ पात्र नहीं जान पड़ता है। वह एक ऐसा पात्र है, जो पहले से ही बना हुआ है। वह उलट परिस्थिति...

पानी

यह मेरे मोहल्ले की तस्वीर है। मुझे नहीं मालूम कि आप इस तस्वीर को कैसे देखते हैं! हो सकता है। यह आपके लिये एक नये तरह की तस्वीर हो। या फिर, आप ऐसी तस्वीरों के आदी हों। कुछ लोग इसे जीते भी होंगे। जो जी रहे हैं, उनके साथ मेरी संवेदना है। संवेदना इसलिये है कि मैं स्वार्थी हूँ। मुझे भी ऐसे ही पानी भरना होता है। मैं 200 मीटर दूर से रोज सुबह-शाम पानी भरी बाल्टियां ढोना पसंद नहीं करता हूँ। लेकिन, ढोनी होती हैं। क्योंकि मुझे भी पानी पीना है, नहाना है, खाना है, टॉयलेट जाना है। मैंने बचपन से देखा है कि पानी पीना सरल नहीं है। मेरे गाँव में पानी पीने के लिए मेहनत करनी होती है। शायद इसीलिए मुझे पानी से प्रेम है। मुझे अनुपम मिश्र से भी बहुत प्रेम है। इसीलिये राजस्थान और बुन्देलखण्ड के लोगों के साथ मेरी संवेदना है। मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास के लोग इन मामलों में सबसे सबसे धूर्त होते हैं। उसे यह सब पढ़कर बहुत गुस्सा आता है। उसे लगता है कि कितने रोनू लोग हैं, 'घर में ही नल क्यों लगवा लेते'। उन्हें यह सब बहुत सरल लगता है। मैंने इन्हें पानी बहाते देखा है। ये मना करने पर और अधिक पानी बहाते...
जबकि, भारत में धर्म ही सबकुछ है। यह शहर में किराये पर कमरा लेने, महरी का काम मिलने, नौकरी पाने से लेकर चुनाव जीतने तक सबमें प्रधान साबित होता है। ऐसे में धर्म पर आया संकट देश का सबसे बड़ा संकट है। रामानंद सागर 'रामायण' टीवी रूपान्तरण का मुख्य आवरण देशभर में लॉकडाउन है। मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों में ताले पड़े हुये हैं। लोगों की धर्म के प्रति आस्था को ख़तरा है। स्नोडेन बुबोनिक प्लेग फैलने का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि 'इसने इंसान के ईश्वर के साथ रिश्ते को सवालों के घेरे में ला दिया था।' महामारी से पैदा हुयी स्थितियाँ ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने लगती हैं। ऐसा सोचकर भी धर्म के ठेकेदार घबरा जाते हैं। राजनेता डरने लग जाते हैं। सत्ता डगमगाने लगती है। सरकारें भय खाने लगती हैं। जबकि सिर्फ अस्पताल खुले हैं और डॉक्टर्स काम कर रहे हैं। तब ऐसी स्थिति भी बन सकती है कि लोग धर्म पर सवाल उठाने लगें। वे इसकी जरूरत पूछ सकते हैं। भारत में धर्म ही सबकुछ है। यह शहर में किराये पर कमरा लेने, महरी का काम मिलने, नौकरी पाने से लेकर चुनाव जीतने तक सबमें प्रधान साबित होता है। उस प...