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मॉब लिंचिंग का शिकार बना आदमी कैसा महसूस करता होगा?

मैंने मॉब लिंचिंग को बहुत क़रीब से महसूस किया। यह अहसास बहुत डरावना होता है। यह इतना भयावह होता है कि इसमें जीवन दिखना बंद हो जाता है। सामने केवल मौत दिखती है। दिमाग बस यह सोचता है कि मैं कैसे ज्यादा देर तक जिंदा बना रह सकूँ। जिससे यह भीड़ या तो थककर रुक जाये, या इसे यह अहसास हो जाये कि वो किसी की जान ले रहे हैं।


मधुमक्खियों की प्रतीकात्मक तस्वीर


हर रोज़ की तरह कल दोपहर भी मैं पढ़ने के लिए गाँव से बाहर एक पीपल के पेड़ तले बैठा। आसपास कोई नहीं था। निपट शांति थी। बीच-खूच एक दो चिड़ियों की आवाज भर सुनायी दे रही थी। मैं आर्ट ऑफ एंकरिंग की क्लास पूरी करके सत्याग्रह पर अव्यक्त का लिखा एक लेख पढ़ रहा था। यह रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में गांधी की उस उपस्थिति के बारे में था जो समय बीतने के साथ-साथ उनकी प्रासंगिकता को और मजबूत कर देती है।

मैं इसे आधा ही पढ़ पाया था। तभी मेरे सिर पर एक मधुमक्खी आ बैठी। अगर आप मधुमक्खी की प्रजातियों के बारे में जानते हों तो यह सबसे बड़ी मधुमक्खी थी। जिसे कई जगह गैंड़ा और कई जगह कैंड़ा आदि नामों से जाना जाता है। अगर ये मधुमक्खियां 20 से अधिक के झुंड में किसी पर हमला कर दें तो उसकी मौत का कारण भी बन सकती हैं। मैंने सिर पर बैठी मक्खी को अपने गमछे से दूर झटक दिया। तब तक एक और मधुमक्खी मेरे सिर पर आ बैठी। मैंने इसे भी झटक दिया। अब मुझे अपने सिर के पास इनका सामूहिक गुंजन सुनायी दिया। यह 15 से 18 मधुमक्खियों का ढेर रहा होगा। मैंने ऊपर देखा और बुरी तरह डर गया। मैं वहाँ से उठकर किसी तरह निकल जाना चाहता था।

उठते ही मेरे ऊपर एक साथ चार मधुमक्खियों ने हमला कर दिया। मैंने इन्हें अपने गमछे से किसी तरह अलग किया और फिर भागने लगा। तब तक चार-पाँच के झुंड में बारी-बारी से इनका हमला शुरू हो गया था। मैं गमछे से सिर की मधुमक्खियों को अलग करता तो दूसरा झुंड मेरे हाथों पर आ चिपटता था। मैं बुरी तरह घबरा गया था। मेरा फोन मेरे हाथ से छूटकर अलग गिर गया। इयरफोन भी दो टुकड़ों में बंटकर गिर गया। गमछा भी गिर गया। मैंने अपनी चप्पलें उतारकर हाथों में ले लीं। उनसे बचना शुरू किया। मैं इन्हें अपने सिर पर पटक रहा था। मैं अब भी भाग रहा था। मेरे हाथ से चप्पलें भी छूट गयीं।

मैं टेढ़ा-मेढ़ा भाग रहा था। जैसे खो-खो में रनर भागता है। अब मैं खलिहान पहुँच गया था। यहाँ मुझे सरसों के पौधे का सूखा ढेर दिखा जिससे सरसों अलग कर ली गयी थी। मैं उसके ऊपर कूद गया और एक बड़ा ढेर उठाकर अपने ऊपर ढक लिया। लेकिन, अभी भी कुछ सांस बची रह गयी थी। उसके भीतर भी मधुमक्खियाँ घुस आयीं। मैं वहाँ से भी उठकर भागा। तभी मुझे जिंगरा( चने के पौधों का सूखा, टूटा ढेर जिससे चने अलग कर लिये गये हों) दिखा। मैंने इसे अपने मुँह पर ढका, यह भी काफी नहीं था। अब वे मेरे बाकी के खुले हिस्से पर हमलावर हो गयीं।

अब मैंने एक बड़े ढेर को उठाकर अपने ऊपर ढक लिया। इसे ढक लेने के साथ मैं करीब आधी मूठी मिट्टी भी फांक गया था। अब मधुमक्खियाँ इस ढेर पर हमलावर थीं। लेकिन, मुझ तक नहीं पहुँच पा रही थीं। यह ढेर भीतर से इतना गरम था कि मैं पसीने से तर हो गया। आंखों में भी धूल चली गयी थी। लगातार आँसू चल रहे थे। मुँह में मिट्टी चले जाने से साँस लेने में भी तक़लीफ़ हो रही थी। मैं अब भी डर से बुरी तरह काँप रहा था। मैं अभी भी सुरक्षित नहीं था। मधुमक्खियां अभी भी इस ढेर के ऊपर मंडरा रही थीं। और बारी-बारी से उसपर हमलावर थीं। ये थोड़ी भी जगह पाकर अंदर दाखिल हो सकती थीं।

मैं क़रीब 20 मिनट तक आधी सांस लेते हुए इस ढेर के अंदर ही था। मैं सोच रहा था पालघर में मारे गए उन साधुओं के बारे में, तबरेज़ के बारे में और उन तमाम लोगों के बारे में, जो कभी हिंसक भीड़ का शिकार बने थे। उनके पास भी कोई रास्ता नहीं रहा होगा। उनपर हमलावर लोग उसकी भाषा समझ सकते होंगे। उन्होंने दया की भीख माँगी होगी। उसे कैसे लात से ठोकर मारकर जमीन पर गिरा दिया गया होगा? कैसे कुचल दिया गया होगा?

मैं यह सब सोचते हुये काँप रहा था। मेरे पैरों में जान नहीं रह गयी थी। पसीना छूट रहा था। क़रीब 15 मिनट बीत चुके थे। अब उन मधुक्खियों की आवाज नहीं आ रही थी। मैं फिर भी करीब 5 मिनट तक भीतर ही रहा। जब सबकुछ एकदम शांत सा दिखा तो बाहर निकला। मैं अभी भी कांपा जा रहा था। मैंने धीरे-धीरे अपना फोन, गमछा, चप्पलें, इयरफोन सब खोजना शुरू किया सब दूर-दूर बिखरे हुए थे। उन्हें डरते हुए उठाना शुरू किया। सबकुछ समेट लेने के बाद मेरा ध्यान अपने ऊपर गया। मेरे हाथ, गर्दन और आँख के नीचे कुल 7 बड़े डंक थे। दर्द बढ़ रहा था। मैं किसी तरह घर आ गया। अभी 24 घण्टे से ऊपर बीत गए हैं। कई दवाएँ खायी हैं। अब बची है हल्की सूजन और भयानक डर!

मैंने उन मधुमक्खियों का कुछ भी बुरा नहीं किया था। वो बस गुस्से में थीं और भीड़ में। उन्हें मैं मिला और शिकार बन गया। कोई कभी भी, कहीं भी, कैसे भी हिंसक और आवारा भीड़ का शिकार बन सकता है। हिंसा कैसी भी हो खतरनाक होती है। वह किसी को मौत की तरफ ढकेलने पर आमादा होती है। ना तो इस भीड़ का बचाव करें, ना ही समर्थन। क्योंकि, आप भी किसी भीड़ का शिकार बन सकते हैं।

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